Sunday, November 04, 2012

भ्रष्टाचार-मुक्त प्रशासन का पंचशील देशबन्धु 25, Oct

भ्रष्टाचार-मुक्त कारगर प्रशासन का पंचशील
देशबन्धु  25, Oct, 2012, Thursday





 लीना मेहेंदलेसरकारी तंत्र की भ्रष्टता से आज सभी परेशान हैं। यह इतना महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है कि स्वयं सरकार भी किंकर्तव्यविमूढ़ है। वह नहीं समझ पा रही है कि इस सर्वव्यापी संकट से कैसे निबटा जाए। यदि कहीं कोई आशा की किरण दिखती है तो वह उधर से आती है, जहां कोई ईमानदार नौकरशाह बैठा है और यदि वह नौकरशाह थोड़ी उच्च श्रेणी का हुआ तो वह किरण थोड़ी और बलवती हो जाती है।
लेकिन आशा की यह किरण प्रकाश के आभास को जीवित रखने तक का कारगर है, अथवा भ्रष्टाचार से उपज रही सारी निराशा को ध्वस्त करने की सामर्थ्य रखती है- यह आज एक प्रश्न बना हुआ है।
यदि किसी सामान्य व्यक्ति से पूछा जाए कि तुम्हें चुनाव करना है- बोलो, तुम्हें काम न करने वाला ईमानदार अफसर चाहिए, या पैसे लेकर काम कर देने वाला भ्रष्ट अफसर चाहिए, या पैसे लेकर काम कर देने वाला भ्रष्ट अफसर चाहिए, तो वह किसका चुनाव करेगा? दोनों तरह से उसे ही मार झेलनी है।
इसीलिए अगर आज कोई सरकारी अफसर कहता है कि 'देखो भाई, मैं तो ईमानदार हूं,' तो लोग उसे हिकारत की नजर से देखते हैं, क्योंकि आज सरकारी अफसर की ईमानदारी निष्क्रियता का पर्यायवाची बन गई है। दस-बीस वर्ष पहले मेरी तरह जो अफसर की ईमानदारी निष्क्रियता का पर्यायवाची बन गई है। दस-बीस वर्ष पहले मेरी तरह जो अफसर अपनी ईमानदारी पर अभिमान अनुभव किया करता था वह आज सोच में पड़ जाता है कि अगर उसकी ख्याति 'ईमानदार अफसर' की ही हो गई तो वह गौरव का पात्र बना रहेगा, या ठिठोली और परिहास का विषय बन जाएगा?
सीधा सवाल है- भ्रष्टाचार की समस्या का हल क्या है? और इसका सीधा उत्तर है- ईमानदारी। लेकिन जैसे ही यह उत्तर सरकारी चौखट को छूता है, वह सरल नहीं जाता, वरन् जटिल बन जाता है।  इसलिए कि सरकारी चौखट का सहारा लेकर चलने वाले भ्रष्टाचार के निराकरण के लिए केवल ईमानदारी पर्याप्त नहीं है। इस भ्रष्टाचार को सरकारी सत्ता का अहंभाव का एक मजबूत आधार सहज ही प्राप्त हो जाता है, जो कि ईमानदार सरकारी अफसर के लिए आधार का काम नहीं कर पाता।
पर यहीं आकर ईमानदार वरिष्ठ अफसर चूक जाते हैं। उन्हें इस तथ्य को समझना होगा कि अपनी ईमानदारी के आधार-स्तंभ के रूप में उन्हें पांच चीजों की आवश्यकता है। चाहें तो इन्हें स्वच्छ प्रशासन का पंचशील कह लीजिए। ये पांच चीजें हैं- ट्रेनिंग (प्रशिक्षण), मॉनिटरिंग (परीक्षण निरीक्षण), टीम-वर्क (सामूहिक कार्य), को-ऑर्डिनेशन (समन्वयन) और मोटिवेशन (अभिप्रेरणा)। आज की सरकारी व्यवस्था (सिस्टम) में इन पांचों चीजाें का नितांत अभाव है। यही कारण है कि ईमानदार अफसरों का अभाव न होते हुए भी, सरकारी तंत्र को सुधारने के सारे प्रयास विफल हो जाते हैं।
सबसे पहले टीम-वर्क को लें। कहावत है कि सरकार में बाएं हाथ को इसकी खबर नहीं होती कि दायां हाथ क्या कर रहा है। इसी कारण, जब 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर आतंकवादी हमला हुआ तो कोई तालमेल नहीं देखने में आया। इसी का यह परिणाम था कि इतने आदमियों की जानें गईं, स्थिति को संभलने में चार दिन लग गए और पहले ही झटके में हेमंत करकरे, कामटे व सालसकर जैसे वरिष्ठ और जांबाज अफसरों को प्राणों से हाथ धोने पड़े।
आज की सरकारी व्यवस्था में न कोई टीम-स्पिरिट (दलनिष्ठा) है और न उसके लिए जरूरी ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) या प्रोत्साहन का इंतजाम है। टीम-स्पिरिट के अभाव का स्पष्ट देखा जा सकने वाला परिणाम यह है कि कोई सरकारी अफसर जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता है। हां, पूछने पर वे जरूर कहेंगे कि मैं ईमानदार अफसर हूं, परंतु साथ ही यह भी जरूर कहेंगे कि मेरी जिम्मेदारी का दायरा केवल मेरी मेज पर पहुंचने वाली फाइलों तक है।
अर्थात् उनकी जिम्मेदारी का दायरा उनके कार्यालय कक्ष की चार दीवारों तक सीमित है। इससे बाहर निकलने पर उनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। जब तक कोई फाईल उनकी मेज तक न पहुंचे उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं, और यों ही फाईल उनकी मेज से अगली मेज पर पहुंची कि उनकी जिम्मेदारी समाप्त-भले ही काम हुआ हो या न हुआ हो।
इसीलिए, उनके किसी अधीनस्थ कर्मचारी की ट्रेनिंग में किसी प्रकार की कमी रह गई हो तो उस कर्मचारी को बुलाकर उसकी उस न्यूनता का कारण समझना और उसे दूर करने का प्रयत्न करना भी वे अपना कर्तव्य नहीं समझते। मैंने कई वरिष्ठ अफसरों को कहते सुना है कि अगर मातहत कर्मचारियों के प्रशिक्षण में कोई कमी रह गई है तो वह उन कर्मचारियों का सिरदर्द है- मैं यहां उनके प्रशिक्षण के लिए नहीं बैठाया गया हूं।
सरकार में मध्यम और निचले स्तर पर काम करने वाले अधिकारियों में प्रशिक्षण की, मोटिवेशन की कमी है। खासकर जो सरकारी योजनाएं चलती हैं उनका निरंतर मॉनिटरिंग करते रहना, उनमें हो रही गलतियों को सुधारते रहना इनकी प्राथमिकता होनी चाहिए।
जब कम्प्यूटर नहीं थे उस जमाने में मॉनिटरिंग का काम सचमुच कष्टसाध्य था। फिर भी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, शुरुआती उत्साह में, कई अच्छे अफसरों ने अच्छी मॉनिटरिंग-प्रणालियां बनाई थीं, पर समय के साथ फाइलों और योजनाओं की संख्या बढ़ जाने से वे प्रणालियां अब कागजों से अंटकर बहुत कठिन हो गई हैं। लेकिन कम्प्यूटर इन कामों को काफी खूबसूरती से और सरलता से कर लेता है। बशर्ते कि हम उसे उसकी भाषा में समझा दें कि हमें किन बातों की मॉनिटरिंग करनी है।
जो अफसर कम्प्यूटर पर थोड़ा-सा सॉफ्टवेयर (जैसे एक्सेल या लोटस) सीख चुके हैं, वे जानते हैं कि यह कितना आसान है। अपने निजी कामों के लिए वे इन प्रणालियों का उपयोग करते भी हैं। लेकिन कार्यालय के मध्यम स्तर के अधिकारी भी इन प्रणालियों को आत्मसात् करें और अपनी-अपनी योजना के अनुकूल एक मॉनिटरिंग डेटा-बेस बनाएं इस बारे में कोई वरिष्ठ अधिकारी न तो सजग और आग्रही है और न जिम्मेवार है।
को-ऑर्डिनेशन का अभाव भी ऐसी ही एक और समस्या है। कभी मजाक में मैं अति स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की एक मिसाल दिया करती थी। यदि कोई बाएं हाथ के अंगूठे का स्पेशलिस्ट है तो वहां दाएं हाथ की कलाई के दर्द की दवा नहीं देगा। बाद में अपनी मां के एक ऑपरेशन के अवसर पर मैंने अनुभव किया कि यह निरा मजाक नहीं था।
मां का ऑपरेशन करने वाले स्त्री-रोग विशेषज्ञ (गाइनेकॉलाजिस्ट) ने मुझसे साफ-साफ कहा था कि ऑपरेशन के दौरान एनेस्थीसिया (विसंज्ञक दवा) की समस्या के कारण आपकी मां को दिल का दौरा पड़ने पर जो हृदय-विशेषज्ञ बुलाया गया था उसके साथ को-ऑर्डिनेशन करना मेरी जिम्मेवारी नहीं थी, और न मैं अनेस्थेटिस्ट से पूछूंगा कि उसने कौन-सी दवा इस्तेमाल की थी। आज मैं देखती हूं कि को-ऑर्डिनेशन का वही अभाव सरकारी तंत्र में भी है।
एक बार, देवदासियों को आर्थिक दृष्टि से सक्षम बनाने के लिए हमारे सरकारी कॉर्पोरेशन ने एक कार्यक्रम चलाया तो हमें उद्योग विभाग और महिला विभाग दोनों के एतराजों का सामना करना पडा। उद्योग विभाग का कहना है कि आपकी योजनाओं में 'देवदासी' और 'महिला' ये दो शब्द सर्वोपरि महत्व रखते हैं। इस कारण उनके लिए अगर कोई कार्यक्रम चलाना हो तो आपको उद्योग विभाग से नहीं, महिला विभाग से बजट मांगना चाहिए।
महिला विभाग ने तो साफ-साफ कह दिया कि देवदासियों के लिए कार्यक्रम सुझाने वाले आप कौन होते हैं? हमारे अपने निर्धारित कार्यक्रम हैं- देवदासियों की शादी करवाकर उनके मंगलसूत्र के लिए 10,000 रुपए का अनुदान देना, या जो देवदासियां साठ साल की हो जाएं उन्हें 300 रुपए महीने की पेंशन देना। उन्हें कारीगरी सिखाकर उद्यम या कारोबार चलाने का प्रशिक्षण देना हमें मंजूर नहीं, उसके लिए हम आपको बजट नहीं दे सकते।
एक और उदाहरण। पेट्रोलियम की बचत के लिए जनता में जागरण फैलाने का काम हमारे कार्यालय के जिम्मे था। मुझसे कहा गया कि आप अपने कार्यक्रमों में बिजली या पानी की बचत की अथवा पर्यावरण की रक्षा की बात नहीं करेंगी... केवल पेट्रोलियम की बचत की बात करेंगी। दूसरे अफसर ने कहा- आप बच्चों को संबोधित न करें... बच्चे पेट्रोल, डीजल, किरोसन या रसोई गैस का उपयोग नहीं करते।
ईमानदार सरकारी अफसरों की इस मनोवृत्ति को मैंने बरसों-बरस देखा-झेला है- उन्हां में से एक होकर, उसी व्यवस्था का एक अंग होकर। अपनी ओर से इसमें सुधार के लिए प्रयास भी किए हैं। आखिर जिस व्यवस्था ने मुझे रोटी दी है, कुछ सम्मान, कुछ अधिकार भी दिए हैं, क्या उस व्यवस्था को बेहतर बनाने की कोई जिम्मेवारी मेरी नहीं बनती? यही वह चेतना थी जिसने मेरे मोटिवेशन (अभिप्रेरणा) को मेरे उत्साह को बनाए रखा।
पूरे परिप्रेक्ष्य को देखकर मैं इस परिणाम पर पहुंची हूं कि ईमानदारी के साथ इन पांचों बातों का निर्वाह करना भी ईमानदार सरकारी अफसरोें की जिम्मेवारी है। इसलिए कि इनके बिना न भ्रष्टाचार का सामना किया जा सकता है, न उस पर काबू पाया जा सकता है।

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